विश्व इतिहास में भारतीय शिक्षा प्रणाली का योगदान अद्वितीय – प्रो. शर्मा
भारतीय शिक्षा प्रणाली में शिक्षकों का योगदान पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी संपन्न
प्रतिष्ठित संस्था राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना द्वारा भारतीय शिक्षा प्रणाली में शिक्षकों का योगदान पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय वेब संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी की मुख्य अतिथि शिक्षाविद डॉ. चेतना उपाध्याय, अजमेर थीं। प्रमुख वक्ता विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के हिंदी विभाग के अध्यक्ष एवं कुलानुशासक प्रो. शैलेंद्र कुमार शर्मा थे। विशिष्ट अतिथि ओस्लो, नॉर्वे के वरिष्ठ साहित्यकार एवं अनुवादक श्री सुरेश चंद्र शुक्ल शरद आलोक, श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर, डॉ रश्मि चौबे, गाजियाबाद एवं संस्था के महासचिव डॉ प्रभु चौधरी ने विचार व्यक्त किए। कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने की।
प्रमुख वक्ता लेखक एवं आलोचक प्रोफेसर शैलेंद्र कुमार शर्मा उज्जैन ने कहा कि विश्व इतिहास में भारतीय शिक्षा प्रणाली का अविस्मरणीय योगदान है। लौकिक जीवन की शिक्षा के साथ आत्म तत्व का साक्षात्कार भारतीय शिक्षा प्रणाली का लक्ष्य रहा है। इस दिशा में वैदिक काल से लेकर आधुनिक युग के अनेक शिक्षकों और चिंतकों ने अपने कर्तव्य का निर्वाह किया है। भारतीय आश्रम व्यवस्था में जीवन के प्रथम चरण ब्रह्मचर्य में शिक्षा अर्जन के प्रति निष्ठापूर्ण समर्पण आवश्यक माना गया है। पुराख्यानों में संकेत मिलते हैं कि अनेक देवों ने इस धरती पर शिक्षक और शिष्य की भूमिका में आकर स्वयं को सार्थक माना है। ज्ञान साधना में पूर्व पक्ष और उत्तर पक्ष की पद्धति भारतीय शिक्षा प्रणाली को वैशिष्ट्य देती है। गुरुकुल पद्धति की शिक्षा में सामाजिक समरसता के दर्शन होते थे।
मुख्य अतिथि डॉ चेतना उपाध्याय, अजमेर ने कहा कि भारतीय चिंतन में शिक्षकों की भूमिका सर्वोपरि मानी गई है। शिक्षकों को सदैव स्वाध्याय करते रहना चाहिए। उन्हें नई तकनीक को भी जानना होगा। विद्यार्थियों के बीच ज्ञान की धार को पैना करने की चेष्टा सदैव शिक्षकों को करते रहना चाहिए।
विशेष अतिथि श्री सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक, ओस्लो, नॉर्वे ने कहा कि लॉकडाउन के दौर में शिक्षकों का दायित्व बहुत अधिक बढ़ गया है। विद्यार्थियों को पर्यावरण के साथ रिश्ता सिखाने के लिए शिक्षकों की महत्वपूर्ण भूमिका है। जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापमान वृद्धि को दृष्टिगत रखते हुए पूर्व प्राथमिक शिक्षा के स्तर से ही इस दिशा में कार्य प्रारंभ होने चाहिए।
संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए डॉक्टर शहाबुद्दीन नियाज मोहम्मद शेख, पुणे ने कहा कि विद्यार्थियों के लोक व्यवहार का आधार शिक्षक होता है। विद्यार्थी ब्रह्मांड की यात्रा कर सकता है, जिसका द्वार शिक्षक ही खोल सकते हैं। तथ्यात्मक ज्ञान देना ही शिक्षक का दायित्व नहीं है, वरन चुनौतियों से टकराने की दिशा देना भी शिक्षकों का महत्वपूर्ण दायित्व है। मस्तिष्क की क्षुधा शिक्षक ही शांत कर सकते हैं।
डॉ रश्मि चौबे, गाजियाबाद ने कहा कि भारतीय शिक्षा पद्धति के केंद्र में गुरुकुल प्रणाली रही है। गुरुकुल व्यावहारिक और आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार की शिक्षा के केंद्र थे। उसमें गुरु और शिष्य एक ही प्रकार के परिवेश और सुविधाओं में रहते थे। वर्तमान में शिक्षकों और विद्यार्थियों की दूरी बढ़ रही है, जो चिंताजनक है। नैतिक मूल्यों का ह्रास रोकने के लिए दोनों का मजबूत रिश्ता जरूरी है।
साहित्यकार श्री हरेराम वाजपेयी, इंदौर ने कहा कि शिक्षक सही अर्थों में राष्ट्र के निर्माता हैं। नई परिस्थितियों के बीच देश - दुनिया के मार्गदर्शन के लिए शिक्षकगण आगे आएं।
श्री अशोक सिंह, मुम्बई ने कहा कि भारत गुरुओं को महत्व देने वाला देश रहा है। यहां गुरुओं को देव तुल्य माना गया है।
संगोष्ठी की प्रस्तावना एवं संस्था की कार्ययोजना महासचिव डॉ प्रभु चौधरी ने प्रस्तुत की। आयोजन में डॉ सुवर्णा जाधव, मुंबई, डॉ भरत शेणेकर आदि ने भी विचार व्यक्त किए।
संगोष्ठी में डॉ लता जोशी, मुंबई, मुक्ता कौशिक, रायपुर, डॉ. सुरैया शेख, डॉ कामिनी बल्लाल, डॉ रोहिणी डाबरे, अहमदनगर, डॉक्टर प्रवीण बाला, पटियाला, सुश्री आभा श्रीवास्तव, डॉ विनीता ओझा, डॉक्टर शिवा लोहारिया, जयपुर, डॉ वी के मिश्रा, श्री सुंदर लाल जोशी, नागदा, बालासाहेब बछकर, मोहिनी कुटे, मीना खरात, समीर सैयद, डॉ श्वेता पंड्या, विजय शर्मा, मीनाक्षी चौहान आदि सहित देश के विभिन्न भागों के शिक्षाविद्, संस्कृतिकर्मी एवं प्रतिभागी उपस्थित थे।
प्रारंभ में सरस्वती वंदना डॉक्टर रोहिणी डाबरे ने की।
कार्यक्रम का संचालन सविता नगरे, औरंगाबाद ने किया। आभार प्रदर्शन डॉ अरुणा शुक्ला ने किया।